उपन्यास >> परती परिकथा परती परिकथाफणीश्वरनाथ रेणु
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"जीवन की अनगिनत रंगीन पन्नों का सफर।"
इस उपन्यास को पढ़ते हुए प्रत्येक संवेदनशील पाठक स्पन्दनीय ज़िन्दगी के सप्राण पन्नों को उलटता हुआ-सा अनुभव करेगा। सहृदयता के सहज-संचित कोष के रस से सराबोर प्रत्येक शब्द, हर गीत की आधी-पूरी कड़ी ने मानव-मन के अन्तरतम को प्रत्यक्ष और सजीव कर दिया है। दो पीढ़ियों के जीवन के विस्तृत चित्रपट पर अनगिनत महीन और लयपूर्ण रेखाओं की सहायता से चतुर कथाशिल्पी ने एक अमित कथाचित्र का प्रणयन किया है। इस महाकाव्यात्मक उपन्यास को पढ़कर समाप्त करने तक पाठक अनेक चरित्रों, घटना-प्रसंगों, संवादों और वर्णन-शैली के चमत्कारों से इतना सामीप्य अनुभव करने लगेंगे कि उनसे बिछुड़ना एक बार उनके हृदय में अवश्यक कसक पैदा करके रहेगा।
परती परिकथा
पतिता भूमि, परती जमीन, वन्ध्या धरती...।
धरती नहीं, धरती की लाश, जिस पर कफ की तरह फैली हुई हैं बलूचरों की पंक्तियाँ। उत्तर नेपाल से शुरू होकर, दक्षिण गंगातट तक, पूर्णिमा जिले के नक्शे को दो असम भागों में विभक्त करता हुआ—फैला-फैला यह विशाल भू-भाग। लाखों एकड़-भूमि, जिस पर सिर्फ बरसात में क्षणिक आशा की तरह दूब हरी हो जाती है।
सम्भवतः तीन-चार सौ वर्ष पहले इस अंचल में कोसी मैया की यह महाविनाश-लीला हुई होगी। लाखों एकड़ जमीन को अचानक लकवा मार गया होगा। एक विशाल भू-भाग, हठात् कुछ-से-कुछ हो गया होगा। सफेद बालू से कूप, तालाब, नदी-नाले पट गए। मिटती हुई हरियाली पर हल्का बादामी रंग धीरे-धीरे छा गया।
कच्छपपृष्ठसदृश भूमि ! कछुआ पीठा जमीन ? तन्त्रसाधकों से पूछिए, ऐसी धरती के बारे में वे कहेंगे—असल स्थान वही है जहाँ बैठकर सबकुछ साधा जा सकता है। कथा है...।
कथा होगी अवश्य इस परती की भी। व्यथा-भरी कथा वन्ध्या धरती की ! इस पाँतर की छोटी-मोटी, दुबली-पतली नदियाँ आज भी चार महीने तक भरे गले से, कलकल सुर में गाकर सुना जाती हैं, जिसे हम नहीं समझ पाते।
कथा की एक कड़ी, कार्तिक से माघ तक प्रति रात्रि के पिछले प्रहर में, सुनाई पड़ती है—आज भी ! सफेद बालूचरों में चरनेवाली हंसा-चकेवा की जोड़ी रात्रि की निस्तब्धता को भंग कर किलक उठती है कभी-कभी। हिमालय से उतरी परी बोलती है—केंक्-केंके-कें-एँ-एँ-गाँ-आँ-केंक् !
एक बालूचर से दूसरे बालूचर, दूसरे से तीसरे में—हज़ारों जोड़े पखेरू अपनी-अपनी भाषा में इस कड़ी को दुहराते हैं। दूर तक फैली हुई धरती पर सरगम के सुर में प्रतिध्वनि की लहरें बढ़ती जाती हैं—एक स्वरतरंग !
हिमालय के परदेशी पँछियों की टोलियाँ, नाना जाति-वर्ण-रंग की जोड़ियाँ प्रतिवर्ष हज़ारों की संख्या में पहाड़ से उतरती हैं—हहास मारती हुईं। फिर फागुन-चैत के पहले ही लौट जाती हैं। भूल-भटकी एकाध रह जाती हैं जो कभी-कभी उदास होकर पुकारती और अपनी ही आवाज में प्रतिध्वनि सुनकर, विकल होकर पाँखें पसारकर उड़ती-पुकारती जाती हैं—केंक्-केंक्-कें-एँ-एँ !
परदेशी चिरैया की करुण पुकार से वन्ध्या धरती की व्यथा बढ़ती है। कौन समझाए भूली पहाड़ी चकई को ? तुत्तु—चुप-चुप।
वन्ध्या धरती की व्यथा को पंडुकी ही समझती है, जो बारहों मास अपना दुख-दर्द सुनाकर मिट्टी के मन की पीड़ा हरने की चेष्टा करती है। वैशाख-जेठ की भरी दोपहरी में सारी परती काँपती रहती है, सफेद बालूचरों की पंक्तियाँ मानो आकाश में उड़ने को पाँखें तौलती रहती हैं। रह-रहकर धूलों का गुब्बारा—घूर्णिचक्र-सा—ऊपर उठता है ! इस घूर्णिचक्र में देव रहते हैं।
परती पर बहुत से देव-दानव रहते हैं। किन्तु, वन्ध्या धरती की पीड़ा हरने की क्षमता किसी में नहीं। पंडुकी व्यथा समझती है, क्योंकि वह एक वन्ध्या रानी की परिचारिका रह चुकी है। वैशाख की उदास दोपहरी में वह करुण सुर में पुकारती है—तुर तुत्तु-उ-उ, तू-उ, तुःउ, तूः। अर्थात्, उठ जित्तू—चाउर पूरे, पूरे-पूरे !
वैशाख की दोपहरी और भी मनहूस हो जाती है। किन्तु, निराश नहीं होती पंडुकी। अपने मृत पुत्र जित्तू को भूलने का बहाना करती है। आँसू पोंछ, उठ खड़ी होती है, फिर नाच-नाचकर शुरू करती है। सुर बदल जाता है और छोटे घुँघरू की तरह शब्द झनक उठते हैं :
बेटा भेल-लोकी लेल।
बेटी भेल—फेंकी देल।
किन्तु, वन्ध्या धरती माता की पीड़ा और भी बढ़ जाती है—ओ पंडुकी सखी ! कोखजली की ग्लानि तुम क्या समझो !
तब, पंडुकी पुनः अपने प्यारे जित्तू को आतुर होकर पुकारने लगती है—उठ जित्तू-ऊ, चाउर पूरे, पूरे-पूरे !
...वन्ध्या रानी माँ का धान कूटती थी पंडुकी। जित्तू जब गोदी में ही था, डगमगाकर चलता था, थोड़ा-थोड़ा। उसी उम्र में जित्तू को कहानी सुनने का कितना शौक था ! आँचल पकड़कर रोता-फिरता। काम के बीच में कभी-कभी पंडुकी उसे गोद में लेकर दूध पिलाती और एक कथा सुनाकर सुला देती। रोज-रोज नई कथा कहाँ से आए ! रानी माँ के मुँह से सुनी रानी माँ की दुख-दर्द-भरी कहानी के एकाध टुकड़े चुपचाप सुना देती।...रानी माँ पंडुकी से सत्त कराकर अपनी कहानी सुनाती। पंडुकी सत्त करती—एक सत्त दो सत्त...किसी और से नहीं कहूँगा रानी माँ।...जित्तु तो कोई और नहीं। उसे सुनाने में क्या दोष !
एक दिन ऐसा हुआ कि भरी दोपहरी में, काम के बेर जित्तू आकर रोने लगा—बिजूबन-बिजूखंड का पता पूछना लगा।...वह देवी मन्दिर का खाँड़ा लेगा, पंखराज घोड़े पर सवार होकर बिजूबन-बिजूखंड जाएगा। राक्षस के घर में वन्ध्या रानी की सुख-समृद्धि एक कलस में बन्द है। वह लड़ाई करेगा...। भोला जित्तू !
जित्तू वन्ध्या रानी माँ की उमड़ती हुई आँखों को पोंछना चाहता है। अपनी माँ के आँसुओं को भी वही पोंछा करता था। पंडुकी बोली—देख बेटा ! रोज-रोज चावल घट जाता है। समय पर तैयार नहीं होता। चावल पुर जाए तो तुझे सब कथा सुना दूँगी। तब तक उस पाखर पेड़ के नीचे जाकर सो रहो। जित्तू चला गया, चुपचाप। सो रहा पेड़ की छाया में—माँ के मुँह से सब कथा सुनने की आशा में। पंडुकी धान कूटने में मगन हो गई। उधर काल ने आकर जित्तू की कहानी समाप्त कर दी।
चावल पूरा हो गया। धान कूटते समय ही पंडुकी कथा की कड़ी जोड़ चुकी थी। जित्तू को पुकारा—उठ बेटा जित्तू, चावल पूरा हो गया—तुर-तुत्तु-उ-उ...।
एक बार जित्तू उठ जाए, एक ही क्षण के लिए। पंडुकी ऐसी कहानी सुनाएगी, ऐसी कहानी कि फिर...। बेचारा जित्तू अधूरी कहानी के सपने देखता सोया हुआ है। आँखें खोलो, पाँखें तोलो...बोलो ! ओ जित्तू, ओ जित्तू ! उठ जित्तू...!
चिरई-चुरमुन भी कहानी पर परतीत न हो, सम्भव है।
परती की अन्तहीन कहानी की एक परिकथा वह बूढा भैंसवार भी कहता है। गँजेड़ी है तो क्या !
गुनी आदमी ज़रा अमल पाँत लेता ही है। एक चिलम गाँजा कबूलकर कितने पीर-फकीर और साई-गोसाईं से यन्त्र-मन्त्र और वाक् लेते हैं लोग !
कथा का एक खंड—परिकथा !
—कोसी मैया की कथा ? जै कोसका महारानी की जै !
परिव्याप्त परती की ओर सजल दृष्टि से देखकर वह मन-ही-मन अपने गुरु को सुमरेगा, फिर कान पर हाथ रखकर शुरू करेगा मंगलाचरण जिसे वह बिन्दौनी कहता है : हे-ए-ए-ए, पूरुबे बन्दौनी बन्दौ उगन्त सिरुजे ए-ए...
बीच-बीच में टीका करके समझा देगा—कोसका मैया का नैहर ! पच्छिम-तिरहौत राज। ससुराल-पूरब।
कोसका मैया की सास बड़ी झगड़ाही। जिला-जवार, टोला-परोपट्टा में मशहूर। और दोनों ननदों की क्या पूछिए ! गुणमन्ती और जोगमन्ती। तीनों मिलकर जब गालियाँ देने लगतीं तो लगता कि भाड़ में मकई के दाने भूने जा रहे हैं : फड़र्र-र्र-र्र। कोखजली, पुतखौकी, भतारखौकी, बाँझ ! कोसी मैया के कान के पास झाँझ झनक उठते !
एक बार बड़ी ननद ने बाप लगाकर गाली दी। छोटी ने भाई से अनुचित सम्बन्ध जोड़कर कुछ कहा और सास ने टीप का बन्द लगाया—और माँ ही कौन सतवन्ती थी तेरी।...कि समझिए बारूद की ढेरी में आग की लुत्ती पड़ गई। कोसका महारानी क्रोध से पागल हो गई : आँ-आँ-रे...ए...ए...
सोना के गहनवाँ मैया गाँव में बँटाउली-ई-ई,
आँ-आँ-रे-ए-ए, रु-उ-पा के जे सोरह मन के चू-उ-उर,
रगड़ि कैलक धू-उ-रा जी-ई-ई !
सास-ननद से आखिरी, लड़ाई लड़कर, झगड़कर, छिनमताही कोसी भागी। रोती-पीटती, चीखती-चिल्लाती, हहाती-फुफनाती भागी पच्छिम की ओर-तिरहौत राज, नैहर। सास-ननदों को पँचपहरिया मूर्च्छाबान मारकर सुला दिया था कोसी मैया ने !....रासेत में मैया को अचानक याद आई—जाः गौर में तो माँ के नाम दीप जला ही न पाई !
गीता-कथा-गायक अपनी लाठी उठाकर एक ओर दिखाएगा—ठीक इसी सीध में है गौर, मालदह जिला में। हर साल, अपनी माँ के नाम दीया-बत्ती जलाने के लिए औरतों का बड़ा भारी मेला लगता है।...महीना और तिथि उसे याद नहीं। किन्तु किसी अमावस्या की रात में ही यह मेला लगता है, ऐसा अनुमान है।
—अब, यहाँ का किस्सा यहीं, आगे का सुनहु हवाल। देखिए कि क्या रंग-ताल लगा है ! कोसी मैया लौटी। गौर पहुँचकर दीप जलाई। दीप जलते ही, उधर सास की मूर्चा गई टूट, क्योंकि गौर से दीप जलाने से बाप-कुल, स्वामी-कुल दोनों कुल में इँजीत होता है। उसी इँजोत से सास की मूर्च्छा टूटी। अपनी दोनों बेटियों को गुन माकर जगाया—अरी, उठ गुनमन्ती, जोगमन्ती, दुनू बहिनियाँ !
छोटी ने करवट लेकर कहा—माँ ! चुपचाप सो रहो। बीस कोस भी तो नहीं गई होगी। पचास कोस पर तो मैं उसका झोंटा धरकर घसीटती ला सकती हूँ।
बड़ी बोली—सौ कोस तरह मेरा बेड़ी-बान, कड़ी-छान गुन चलता है। भागने दो, कहाँ जाएगी भागकर ?
माँ बोली—अरी आज ही तो सब गुन-मन्तर देखूँगी तुम दोनों का। तुम्हें पता है, कोसी-पुतोहिया ने गौर में दीप जला दिया ? तुम्हारे जादू का असर उस पर अब नहीं होगा।
—एँय ? क्या-आ-आ ? दोनों बहनें, गुनमन्ती-जोगमन्ती हड़बड़ाकर उठीं। अब सुनिए कि कैसा भौचाल हुआ है। तीनों-माँ-बेटियाँ—अपनी-अपनी गुन की डिबिया लेकर निकलीं।
छोटी ने अपनी डिबिया का ढक्कन खोला—भरी दोपहरी में आट-आठ अमावस्या की रातों का अन्धकार छा गया।
बड़ी ने अपनी अँगूठी के नगीने में बन्द आँधी-पानी को छोड़ा।
—उधर कोसी मैया बेतहाशा भागी जा रही है, भागी जा रही है। रास्ते की नदियों को, धाराओं को, छोटे-बड़े नालों को, बालू से भरकर पार होती, फिर उलटकर बबूल, झरबेर, खैर, साँहुड़, पनियाला, तिनकटिया आदि कँटीले कुकाठों से घाट-बाट बन्द करती छिनमताही भागी जा रही है। आँ-आँ-रे-ए...
घड़ी-घड़ी पर मूर्छा लागे, बेर-बेर पियास :
घाट न सूझे, बाट न सूझे, सूझे न अप्पन हाथ...
कुल्हड़िया आँधी के साथ एक सहस्र कुल्हाड़ेवाले दानव रहते हैं, पहड़िया पानी तो पहाड़ को भी डुबा दे।
अब देखिए कि कुल्हड़िया और आँधी और पहड़िया पानी ने मिलकर कैसा परलय मचाया है : ह-ह-ह-र-र-र-र...! गुड़गुडुम्-आँ-आँ-सि-ई-ई-ई-आँ-गर-गर-गुडुम !
गाँव-घर, गाछ-बिरिच्छ, घर-दरवाज़ा करतली कुल्हड़िया आँधी जब गर्जना करने लगी तो पातालपुरी में बराह भगवान भी घबरा गए। पहाड़िया पानी सात समुन्दर का पानी लेकर एकदम जलामय करता दौड़ा।...तब कोसी मैया हाँफने लगी, हाथ-भर जीभ बाहर निकालकर। अन्दाज लगाकर देखा, नैहर के करीब पहुँच गई हैं और पचास कोस ! भरोसा हुआ। सौ कोसों तक फैले हुए हैं मैया के सगे-सम्बन्धी, भाई-बन्धु। मैया ने पुकारा, अपने बाबा का नाम लेकर, वंश का नाम लेकर, ममेरे-फुफेरे, मौसेरे भाइयों को—भइया रे-ए-ए-, बहिनी की इजतिया तोहरे हाथ !
फिर एक-एक भौजाई का नाम लेकर, अनुनय करके रोई—‘‘भउजी, हे भउजी, लड़िका तोहर खेलायब हे भउजी, ओढ़नी तोहर पखारब हे भउजी-ई-ई, भइया के भेजि तनि दे-ए !’’
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